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Shiksha Vahini
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मर्यादाओं के अवसान से उपजती हिंसक मानसिकता

shikshavahini by shikshavahini
October 15, 2020
in सामाजिक
0
अकेला सफर (लघु कथा)

डा. हिमेंद्र बाली ‘हिम’, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

समाज संस्कति और सभ्यता का समन्वित स्वरूप है। संस्कृति मानव चिंतन का वह प्रवाह है, जो युगों से पीढ़ी दर पीढ़ी धरोहर स्वरूप बहता रहा है। संस्कृति संस्कारों की वह बपौती है, जो संस्कारों से संवरती है और पूरे समाज को एक सूत्र में पिरोकर रखती है। सभ्यता मानव का बाहरी आवरण है, जो संस्कृति की प्राण वायु से जीवित रहती है। आज के द्रुतगामी भौतिक जगत में सामाजिक विघटन की विद्रूपता संस्कति के अवसान की आहट है।

आज के तथाकथित विकासवादी युग में सभ्यता की जो आडंबरपूर्ण चकाचौंध दृष्टिगोचर होती है, वह भीतर से नितांत खोखली और छिछली है। आज के दौर में आपसी रंजिश के चलते रक्त रिश्तों की मौत के जो मंजर सुने पढ़े जाते हैं, उनसे रूह तक कांप उठती है। जमीनी विवाद में पुत्र, पिता,भाई व चाचा की हत्या व जानलेवा हमले की घटनाएं आम हो गई हैं। जिस देश में नारी की देवतुल्य पूजा होती थी, जहां द्रौपदी की अस्मिता के हरण पर भगवान श्री कृष्ण ने आततायी कौरवों के विनाश की योजना को धर्म की मर्यादा को तोड़कर कार्यरूप दिया। वहीं आज नारी हिंसा, अपहरण व बलात्कार की शिकार हो रही है। भारतीय मनीषा ने जीवन को धर्म, अर्थ,काम व मोक्ष के चार स्तम्भों पर प्रतिष्ठित कर पूरे मानव जगत को जीने के परम उद्देश्य की शिक्षा दी थी, अर्थात् सदैव कर्मशील रहते हुए धनार्जन धर्म हेतू कर मोक्ष के पद को प्राप्त किया जाए। जीवन के इन चार पदों में अर्थ की गुणवत्ता धर्म के अधीन थी। धर्म की सनातन परिभाषा ‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ अर्थात् आचरणयुक्त जीवन ही धर्म है पर अवलम्बित थी, परन्तु आज धर्म राजनीतिक लाभ, तुष्टीकरण और पाखण्ड की नींव पर आधारित है। धर्म से निष्काम कर्म और मोक्ष का सत्व निष्कासित कर दिया गया है।धार्मिक संवेदनाओं को निजी लाभ के लिए भुनाने की साजिशें  राजनीति में परम्परा ही बन गई है।

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Tags: #dr.himenderbali#himachalnews#shimla
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