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Shiksha Vahini
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बसंत की खोज

shikshavahini by shikshavahini
February 16, 2021
in आस्था, लाइफ स्टाईल, लेख, सामाजिक
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 उम्मीद

डॉ. अवधेश कुमार अवध”, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

बसंत उल्लास का नाम है। कंगाली बिहु के बाद आये भोगाली बिहु में पूर्ण उदर संतुष्टि का नाम है। ठंड से ठिठुरती अधनंगी देह को मिली धूप की सौगात का नाम है। धरा के सप्तवर्णी श्रृंगार का नाम है। भगवान भास्कर के दिशि परिवर्तन का नाम है। आम के बौर के सँग मन बौराने की मादकता का नाम है। काक और पिक के बीच चरित्र उजागर होने का नाम है। फाग के झाग में डुबकी लगाने का नाम है। पावन प्रकृति के मुस्कुराने का नाम है। नाम तो होलिका के जलकर मरने से भी जुड़ा है। श्रीराम जन्मोत्सव श्रीराम नवमी के आगमन की पावन पृष्ठभूमि के पूर्व काल से भी जुड़ा है।
बसंत तो हर वर्ष आता है। पहले भी आता था। पहले के पहले भी। सदियों पहले भी। एक बात नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रमुखतः भारत में ही आता है साथ ही कुछ पड़ोसियों के यहाँ भी। शेष दुनिया तो बस इसके बारे में सोच सकती है। सुन भी सकती है। भोग भी सकती है लेकिन भारत में आकर ही। दूर से नहीं। कदापि नहीं। पहले यह जब आने को होता था तो प्रकृति आगमन से पूर्व तैयारी करती थी। बेसब्री से इंतजार करती थी। न केवल स्वयं का बल्कि सकल सचराचर का भी। मगर अब तो पता ही नहीं चलता। कब आया और चला भी गया। कहीं कहीं थोड़ा पता भी चल सकता है। जहाँ सरस्वती माता का पूजनोत्सव होता है। प्रदर्शन होता है। निदर्शन होता है। प्रतिकर्षणाकर्षण होता है। जयघोष के नारे लगते हैं। बुद्धिजीवी समुदाय से किनारे लगते हैं। नीर-क्षीर विवेक का स्वामी शरीराशरीर परोक्ष होता है।शिक्षायें तिरस्कृत होती हैं। पुस्तकें बहिष्कृत होती हैं। दुंदुभी बजती है। गाने बजते हैं। विलोचन शोधन होता है। दृश्य व श्रव्य सम्मत पर्याप्त मनोरंजन के उपादानों का दोहन होता है। जोर आजमाइश होती है। शिक्षा, संस्कृति व संस्कार को छोड़कर सब कुछ होता है। पूजनोत्सव में पूजन का उत्सव होता है। महोत्सव होता है। बस पूजन ही नहीं होता।
मशीनीकरण और मानवों के अबाध स्वार्थ ने पखेरुओं का जीवन दूभर कर दिया है। अल्पमत में आईं कोयलें कूक भी नहीं सकतीं। लकड़हारों की कुल्हाड़ी और चिमनियों के जहरीले धुओं से हताहत आम्रतरु में मंजरी भी नहीं आतीं। रासायनिक रंगों और चारित्रिक पतन जनित दैहिक बलात्कार ने होली से डरना सिखा दिया है।दलहनी और तिलहनी फसलों की निरन्तर न्यूनता ने खतों से शस्य श्यामला की संज्ञा छीन ली है। सतरंगी श्रृंगार को अपूर्ण कर दिया है। माँ सरस्वती से अधिक प्रभावी उनका वाहन होने लगा है। सुमित्रा नन्दन पन्त का मनभावन बसंत विलुप्तप्राय है। निराला की मलय बहार अब कहाँ! पद्माकर के समय दशों दिशाओं में फैला बसंत कही दुबक गया है।
बाजारवाद के सुरसा मुँह ने निगल लिया बसंत को। निगल ही तो लिया। बसंत कोई पवन पुत्र हनुमान तो नहीं जो सूझ बूझ से सुरसा को चकमा देकर परे निकल जाये। हनुमान के समक्ष एक सुरसा थी। आज बसंत के परितः अनन्त सुरसाओं का अकाट्य घेरा है। ऑक्टोपस की कँटीली बाँहों में असहाय तड़प रहा है। कोई केशव भी तो नहीं है जो धृतराष्ट्र की कठोर बाजुओं में पुतला देकर भीम को बचा सके। बसंत को बचा सके। सरस्वती पूजा को नीर क्षीर विवेकाधारित बना सके। धरती को पुनः शस्य श्यामला बना सके। प्रकृति को पावन बना सके। कोयल को कूकने की आजादी दे सके। नदियों को बहने की स्वतन्त्रता दे। वनों को वनवासी शरणस्थली बना सके। हवा को मलयज बना सके। उपभोक्तावाद की बलि वेदी से बसंत को लौटा लाये। खोज लाये कोई बसंत को जो बस अंत होने की स्थिति से गुजरने को विवश है।
बसंत को लाना ही होगा। अपनाना ही होगा। अपना बनाना भी होगा। अगर हमें धरती पर जीवन चाहिए तो प्रकृति से प्रेम करना होगा। प्रकृतिमय बनना होगा। प्रकृति पर परितः हो रहे घातक प्रहारों को रोकना ही होगा। रोकना ही होगा प्रदूषण की कालिमा को। वापस लाना होगा नैसर्गिक लालिमा को। लाना ही होगा। इसके लिए बहुत कुछ करना होगा। तीनों मौसम लाने होंगे। छः ऋतुएँ लानी होंगी। गुमी हुईं खुशियों को लाना होगा। अपनेपन को जगाना होगा। ऋतुराज को लाना होगा। ऋतुराज बसंत को खोजकर लाना होगा।
साहित्यकार, संपादक, अभियन्ता व सदस्य अन्तरराष्ट्रीय मान अधिकार आयोग, मैक्स सीमेंट, ईस्ट जयन्तिया हिल्स मेघालय
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