डॉ. अ. कीर्तिवर्धन, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
बना कर कब्र मेरी, जहाँपनाह ने
मोहब्बत का हसीन तोहफा दिया,
जीते जी मैं महारानी थी
मरने पर कातिल बना दिया।
कब्र पर मेरी आने वाले
सजदे में फूल नहीं लाते हैं,
डाल कर चंद सिक्के वहां
मेरी बेबशी का मजाक उड़ाते हैं।
बनाकर नायब ताजमहल जहाँपनाह ने,
अपनी मोहब्बत को ज़माने को दिखलाया।
पर कलम करके हाथ हुनरमंदों के,
मुझे कातिल बना डाला।
सुला कर ‘ताज’ में मुझको, मेरे मालिक ने
नींद से भी बेदखल कर डाला,
अच्छा सिला दिया मेरी मोहब्बत का,
कफ़न मेरा खून से रंग डाला।
न जाने कितनी आहें हैं
मेरे जिस्म से लिपटी हुई,
गुनाहों का बोझ सीने पर
पावों से मैं कुचली गई।
न जाने कब ख़त्म होगी,
सजा मेरे गुनाहों कि,
होउंगी कैद से रुखसत
नींद मुझको भी आएगी।
53 महालक्ष्मी एनक्लेव, मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश